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First Woman Lawyer: भारत की पहली महिला वकील कौन थी? अंग्रेजी हुकूमत की कर देती थी हवा टाइट

Published September 8, 2023
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6 Min Read

Contents
महिला होने की वजह से नहीं मिली थी स्कॉलरशिपकानूनी करियर में आया बैरियर1920 में मिली कामयाबी

First Woman Lawyer of India: भारत विविधताओं से भरा देश है. यहां हर तरह के लोग मौजूद हैं. कोई अपने आप को बाहुबली समझता है तो कोई बाहुबली है. आज के आर्टिकल में हम आपको एक ऐसी महिला की कहानी सुनाने वाले हैं, जिसने पहली बार भारतीय इतिहास में वकील की डिग्री हासिल की थी और बन गई थी भारत की पहली महिला वकील. 20वीं सदी की शुरुआत की बात है तब एक बाहुबली राजा को ब्रिटिश हुकुमत से एक केस लड़नी थी. उन्होंने राज्य के सभी तेज तर्रार वकीलों को इसके बारे में सूचित किया और अपने सलाहकारों से सबसे बेहतर वकील लाने का आदेश दिया. सलाहकारों ने तब देश की पहली महिला वकील को इसकी जिम्मेदारी दी. जब वह यानि कॉर्नेलिया सोराबजी गुजरात के पंचमहल अदालत में पहुंची, झूले पर बैठे सनकी राजा ने घोषणा की कि उसने केस जीत लिया है, इस आधार पर कि उसका कुत्ता उस महिला वकील को पसंद करता है. 

महिला होने की वजह से नहीं मिली थी स्कॉलरशिप

15 नवंबर 1866 को नासिक में पारसी-ईसाई परिवार में पैदा हुईं कॉर्नेलिया सोराबजी अपनी छह बहनों में सबसे छोटी थीं. उन्होंने अपने प्रारंभिक वर्ष बेलगाम, कर्नाटक में होमस्कूलिंग में बिताए, जहां उनका परिवार रहता था. सोराबजी के पिता कारसेदजी, एक ईसाई मिशनरी और महिला शिक्षा के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने अपनी बेटियों को बॉम्बे विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के लिए प्रोत्साहित किया. उनकी मां फ्रांसिना फोर्ड ने पुणे में कई लड़कियों के स्कूल स्थापित किए और महिलाओं को शिक्षा मिले इसके लिए हरसंभव प्रयास किया. बॉम्बे विश्वविद्यालय की पहली महिला छात्रा, कॉर्नेलिया सोराबजी ने एक साल में अंग्रेजी साहित्य में पांच साल का पाठ्यक्रम पूरा किया और अपनी कक्षा में भी टॉप किया, लेकिन इस उपलब्धि के बावजूद, उन्हें लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया गया क्योंकि वह एक ‘महिला’ थीं. बाद में उनके पिता ने अपने पैसों से उसे पढ़ाया, हालांकि ऑक्सफोर्ड ने महिला होने की वजह से डिग्री देने से मना कर दिया था. उसके बाद वह भारत लौट आईं.

कानूनी करियर में आया बैरियर

डिग्री प्राप्त करने में असमर्थ होने के बावजूद सोराबजी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और ‘पर्दानशीं’ यानि जो महिलाएं पर्दे के पीछे रहा करती थी, उनके साथ सामाजिक कार्यों में शामिल रहीं. हालांकि सोराबजी को इन महिलाओं के लिए याचिका दायर करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन वह अदालत में उनका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती थीं, क्योंकि भारत में महिलाओं के कानून का अभ्यास करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.

इससे सोराबजी पर कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने एल.एल.बी. कर ली. बॉम्बे विश्वविद्यालय में परीक्षा और उसके तुरंत बाद 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की वकील की परीक्षा पास कर ली. फिर भी उन्हें बैरिस्टर नहीं माना गया और इसलिए पर्दानशीं के मुद्दों और अधिकारों पर सरकार के कानूनी सलाहकार के रूप में काम किया. 1904 में उन्हें बंगाल के कोर्ट ऑफ वार्ड्स में महिला सहायक के रूप में नियुक्त किया गया था. अल्पसंख्यक समुदायों की मदद करने के उनके उत्साह ने कई जिंदगियों को प्रभावित किया, जिससे उनके लगभग दो दशक के करियर में लगभग 600 महिलाओं और बच्चों को उनकी कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद मिली. लेकिन कई लोगों ने उनके काम को गंभीरता से नहीं लिया. वह बाल विवाह और सती प्रथा के उन्मूलन की भी इकलौता वकील थीं.

1920 में मिली कामयाबी

1920 में ही सोराबजी को अंततः अपनी डिग्री प्राप्त हुई और 1922 में लंदन की बार काउंसिल द्वारा महिलाओं को कानून का अभ्यास करने की अनुमति देने के बाद उन्हें औपचारिक रूप से ब्रिटेन में बैरिस्टर के रूप में मान्यता दी गई. 1924 में वह कलकत्ता (अब कोलकाता) लौट आईं और महिलाओं को कानून का अभ्यास करने से रोकने वाले प्रावधान को भंग करने के बाद उच्च न्यायालय में बैरिस्टर के रूप में खुद का रजिस्ट्रेशन करा लिया. 1909 में सोराबजी को लोक सेवा के लिए कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया गया था. सोराबजी 1931 में स्थायी रूप से लंदन वापस चली गई और 6 जुलाई 1954 को मैनर हाउस के नॉर्थम्बरलैंड हाउस में उनकी मृत्यु हो गई.

ये भी पढ़ें: Joe Biden Suits Price: जो बाइडेन इस खास टेलर से तैयार कराते हैं अपना सूट, एक की कीमत में घूम आएंगे लंदन

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